रविवार, 4 सितंबर 2011

आचार्य सत्यजित जी आर्य  
ऐश्वर्य में रमने वाला मन

प्रभु-कृपा से हमें मन नामक एक अन्त:करण मिला है। प्रभु ने इस मन को ऐश्वर्यप्रिय बनाया है। इसलिए हर व्यक्ति ऐश्वर्य को पाना चाहता है। हर व्यक्ति ऐश्वर्य को देखकर या प्राप्तकर प्रसन्न होता है। ऐश्वर्य रहित स्थिति में प्रसन्नता नहीं रहती, ऐश्वर्य के कम होने पर प्रसन्नता कम हो जाती है। प्रभु ने सकल ऐश्वर्य प्रदान किये हैं। उसने ऐश्वर्यों को चाहने वाले ‘मन’ को भी दिया है।
संसार में अनेकविध ऐश्वर्य हैं। धन-सम्पत्ति, सुन्दर-शरीर, मधुर-वाणी, रंग-रूप, तीक्ष्ण व स्वच्छ बुद्धि, ज्ञान, वृक्ष-वनस्पति, नदी-पर्वत, पशु-पक्षी आदि बहुविध ऐश्वर्य संसार में बहुतायत से बिखरा पड़ा है। व्यक्ति इनकी ओर बार-बार आकर्षित होता रहता है। एक ऐश्वर्य से मन भर गया है तो दूसरे ऐश्वर्य को पाने में लग जाता है। थोड़ा ऐश्वर्य प्राप्त करने के बाद जब उससे भी मन भर जाता है तो व्यक्ति अधिक ऐश्वर्य की प्राप्ति में लग पड़ता है।
ऐश्वर्य की इच्छा को, अधिकाधिक ऐश्वर्य की इच्छा को आध्यात्मिक-क्षेत्रा में हीन दृष्टि से देखा जाता है। वस्तुत: ऐश्वर्य की चाह तो सब में होती है, भौतिकवादी सांसारिक व्यक्ति में भी और आध्यात्मिक व्यक्ति में भी। ऐश्वर्य की कामना प्रगति के लिए आवश्यक है, प्रगति चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक। भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त करके, उसका अनुभव लेकर व्यक्ति उससे जब वितृष्ण हो जाता है, भौतिक ऐश्वर्य की चाह-ललक से ऊपर उठ जाता है, तो इसे ही ‘वैराग्य’ कहते हैं। किन्तु इस वैराग्य का कारण भी ऐश्वर्य की कामना ही है। जिस भौतिक बाह्य ऐश्वर्य को चाहा था वह पुरुषार्थ कर पा भी लिया था, उससे पूर्ण तृप्ति को पाना असंभव ज्ञात होने पर व्यक्ति आध्यात्मिक- आन्तरिक ऐश्वर्य को पाना चाहता है। आध्यात्मिक आन्तरिक ऐश्वर्य अधिक प्रसन्नता देता है, अधिक देर तक रहता है। आध्यात्मिक ऐश्वर्य की प्रसन्नता की विशेषता यह होती है कि वह प्रसन्नता व्यग्रता से रहित, बहुत शांत-गंभीर होती है।
भौतिक बाह्य-ऐश्वर्य इसलिए हीन व हेय है क्योंकि आध्यात्मिक-आन्तरिक ऐश्वर्य उससे बड़ा व अधिक होने से श्रेष्ठ व उपादेय होता है। आध्यात्मिक व्यक्ति का मन भी ऐश्वर्य-प्रिय होता है। प्रारंभिक आध्यात्मिक व्यक्ति को पर्वत, वन, नदियां, झरने, घाटियां, पर्वतशिखर आदि प्राकृतिक ऐश्वर्य बहुत आकर्षित करते हैं। इन्हें पाकर वह प्रसन्न होता है व अधिक एकाग्र होकर आध्यात्मिक आन्तरिक एकाग्रता-सुख-शान्ति -सन्तोष को और अधिक ऊँचे स्तर पर पाता रहता है।
इन सब ऐश्वर्यों का भी ऐश्वर्य एक और ऐश्वर्य है। वह है परमपिता परमात्मा का ऐश्वर्य। उच्च स्तर का साधक-योगाभ्यासी-योगी वही बन पाता है जिसे परमात्मा का ऐश्वर्य आकर्षित करने लगता है। उसे सांसारिक बाह्य ऐश्वर्य व आन्तरिक आध्यात्मिक एकाग्रता-शान्ति-संतोष आदि ऐश्वर्य भी फीके लगने लगते हैं। वह इन अन्य ऐश्वर्यों का आवश्यक उपयोग तो करता है, पर उसे वे अंतिम-ऐश्वर्य की तरह नहीं लगते हैं। ऐश्वर्य में रमने वाला मन परमात्मा के ऐश्वर्य में ऐसा रमता है कि उसके अन्य राग समाप्त हो जाते हैं, वह वैराग्य को प्राप्त हो जाता है। वेद (श्रव्य-काव्य) और प्रकृति (संसार, दृश्य-काव्य) में बुद्धिपूर्वक प्रवेश करने वाले को वहां ईश्वर के नित्य-नये ऐश्वर्य का बोध होता रहता है, वह ईश्वर में ही रम जाता है, ईश्वर के ऐश्वर्य में ही रमा रहता है। उसे भौतिक प्राकृतिक ऐश्वर्य लुभा नहीं पाते, वह इनसे विरत हो जाता है।
प्रभु-कृपा से मिले ऐश्वर्य-प्रिय मन की पूर्ण सफलता यही है कि वह चरम-ऐश्वर्य को चाहने लगे। यदि व्यक्ति अपने मन की ऐश्वर्य-प्रियता का समझदारी से उपयोग करे, तो ईश्वर-साक्षात्कार तक पहुँच सकता, अपने जीवन को चरितार्थ कर सकता है, कृतकृत्य हो सकता है। अपने मन को परमात्मा के ऐश्वर्य की ओर मोड़ देने पर सभी आध्यात्मिक उपलब्धियां सहज मिलती जाती हैं। प्रभु-कृपा से प्राप्त ऐश्वर्य-प्रिय मन का यही सर्वोत्कृष्ट उपयोग है।

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